बलि के नाम पर ख्याल आता होगा कि पशु की काटकर बलि दी जाती है. लेकिन भारत का एक ऐसा मंदिर है जहां पर रक्तहीन बलि देने की परंपरा है. जी हां हम बात कर रहे हैं बिहार के कैमूर जिले (Kaimur District) में बसे विश्व के सबसे प्राचीन मंदिरों में से एक मां मुंडेश्वरी मंदिर की. नवरात्रि (Navratri) में मां मुंडेश्वरी के दर्शन के लिए काफी संख्या में लोग दूर-दूर से पहुंचते हैं.
मनोकामना पूर्ण होने पर देते हैं बकरे की बलि
कैमूर जिले के इस मंदिर के गर्भगृह में पंचमुखी शिवलिंग विराजमान है. वहीं मंदिर के एक कोने में माता मुंडेश्वरी की प्रतिमा विराजमान है. मान्यता है कि जिन लोगों की मनोकामना पूर्ण हो जाती है वह बकरे की बलि चढ़ाते हैं. यहां बकरे को माता की प्रतिमा स्पर्श कराया जाता है. इसके बाद बकरे के अंदर शक्ति नहीं रहती. बाद में पुजारी द्वारा अक्षत फेंकने के बाद बकरा फिर से खड़ा हो उठता है. नवरात्रि (Navratri) में मां मुंडेश्वरी का दर्शन पूजन करने के लिए काफी संख्या में लोग दूर-दूर से पहुंचते हैं.

शारदीय नवरात्रि (Shardiya Navratri) में दूर-दूर से पहुंचते हैं श्रद्धालु
इस अहिंसक बलि को देखने के लिए दूर-दूर से लोग पहुंचते हैं. अब बिहार प्रदेश के अलावा उत्तर प्रदेश, झारखंड, मध्य प्रदेश सहित भारत के विभिन्न जगहों से लोग पहुंचकर दर्शन पूजन कर रहे हैं. मान्यता है कि चैत्र नवरात्रि और शारदीय नवरात्रि (Shardiya Navratri) में यहां पूजा अर्चना करने से सारी मनोकामना पूर्ण हो जाती है.
इतिहास से भी जुड़ा है मुंडेश्वरी मंदिर
यह मंदिर पवरा पहाड़ी के शिखर पर स्थित है, जिसकी ऊंचाई लगभग 600 फिट है. वर्ष 1812 अभी से लेकर 1950 ईस्वी के ब्रिटिश यात्री आर्यन मार्टिन फ्रांसिस बुकानन और ब्लॉक में इस मंदिर का भ्रमण किया था. पुरातत्वविदों के अनुसार, यहां से प्राप्त शिलालेख 389 ईसवी से 636 ईसवी के बीच का है. इस बात से आप अंदाजा लगा सकते हैं कि मंदिर कितना पुराना है.

मुंडेश्वरी भवानी के मंदिर की नक्काशी और मूर्तियों उत्तर गुप्तकालीन बताई जाती हैं. यह पत्थर से बना हुआ अष्टकोणीय मंदिर है. इस मंदिर के पूर्वी खंड में देवी मुंडेश्वरी की पत्थर से बनी हुई भव्य प्राचीन मूर्ति मुख्य आकर्षण का केंद्र है, जहां मां वाराही ग्रुप में विराजमान है, जिनका वाहन महिष है. इस मंदिर के मध्य भाग में पंचमुखी शिवलिंग स्थापित है, जिस पत्थर से पंचमुखी शिवलिंग निर्मित किया गया है उसमें सूर्य की स्थिति के साथ-साथ पत्थर का भी रंग बदलता रहता है. मुख्य मंदिर के पश्चिम में पूर्वाभिमुख विशाल नंदी की मूर्ति है. आज भी इस मंदिर में पशु बलि दी जाती है लेकिन बध नहीं किया जाता. यह परंपरा पूरे भारतवर्ष में कहीं नहीं है.
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