भारत में अस्था और परंपरा का संरक्षित स्थान है. तीर्थ यात्रा भी ऐसे ही एक आस्था और परंपरा का हिस्सा है. तीर्थ यात्रा की परंपरा रामायण जितनी पुरानी है. आज भी लोग अपने योग्य बच्चों, खासकर बेटों, की तुलना श्रवण से करते हैं. ये वही श्रवण है जिसने अपने बूढ़े और नेत्रहीन माता-पिता को अपने कंधे पर बैठाकर तीर्थ कराने का जिम्मा लिया था. जाहिर है, तीर्थ यात्रा की परंपरा भारत में सदियों पुरानी है. आज भी यह परंपरा जारी है और लोग तीर्थ यात्रा करने हरिद्वार, ऋषिकेश, मथुरा, काशी, बद्नीनाथ-केदारनाथ आदि धार्मिक स्थलों पर जाते रहते हैं. बता दें कि तीर्थ यात्रा को लोग धर्म और दान-पुण्य से जोड़कर देखते हैं. सदियों से लोगों का तीर्थ यात्रा करना यह भी दिखाता है कि भारत के लोग भी घुमने के शौकीन हैं. कहीं-न-कहीं तीर्थ का कॉन्सेप्ट भी इसलिए ही लाया गया होगा कि लोग अपने व्यस्त दिनचर्या से समय निकालकर उम्र के उस पड़ाव में जहां उनके पास कोई जिम्मेदारी नहीं है, थोड़ा घूम लें.
मंदिरों के भवन में है सकारात्मक ऊर्जा का प्रवाह
रोजमर्रा की परेशानियों से निजात पाने का सबसे अच्छा तरीका माना जाता है तीर्थ यात्रा. यूं भी मंदिरों का निर्माण वास्तु को ध्यान में रखकर किया जाता है और ऐसा माना जाता है कि सभी पौराणिक मंदिर के भवन में सकारात्मक ऊर्जा का प्रवाह होता है. इस वजह से ही मंदिर जाने पर हमारे मन को शांति मिलती है और अगर मंदिर प्रकृति की गोद में हो तो वही वाली बात हो जाती है सोने पे सुहागा. लेकिन बीते कुछ सालों से जिस प्रकार प्रकृति आपदा और भीड़भाड़ को लेकर स्थिति बन रही है वो बेहद चिंताजनक है. साथ ही इस पर विचार करना चाहिए.

प्रकृति आपदा बन रही है तीर्थ यात्रा के लिए खतरे का सबब
चार धाम यात्रा की शुरुआत हो चुकी है. इस साल 22 अप्रैल को गंगोत्री और यमुनोत्री की यात्रा शुरू हो गई. वहीं 25 अप्रैल को केदारनाथ के पट खुल गए. 27 अप्रैल को बदरीनाथ के कपाट खुल गए. आस्था का सैलाब लिए आमजन तीर्थ यात्रा पर निकल चुके हैं. हालांकि, केदारनाथ धाम की यात्रा मार्ग पर बर्फबारी के कारण 8 मई तक पंजीकरण पर रोक रहेगी.
आउटलुक में प्रकाशित एक लेख के अनुसार, पिछले साल लगभग 48 लाख श्रद्धालुओं ने चारधाम के दर्शन किए. इनमें बदरीनाथ और केदारनाथ पहुंचने वालों की संख्या 33 लाख के आसपास थी. कहा जा रहा है कि यह आंकड़ा इस बार और भी ज्यादा बढ़ सकता है. लेकिन बीते कुछ महीनों के प्रकृति आपदा के रिकॉर्ड देखें तो यह कह पाना मुश्किल है कि इस बार की आमजन की तीर्थ यात्रा कितनी सरल होगी.

इस बार की सबसे बड़ी चुनौती है बदरनीथ क्योंकि बदरनीथ तक पहुंचने वाली मारवाड़ी पुल लगातार जमीन धसने से कमजोर हो गई है. बता दें कि जोशीमठ आपदा के बाद से आसपास की सभी जगहों की जमीन धसने लगी है. हालांकि, सीमा सड़क संगठन (बीआरओ) की पूरी कोशिश है कि वह इस पुल को सुचारू बनाए.
रास्ता भी खराब, न रुकने का है इंतजाम…
इधर, केदारनाथ की अलग कहानी है. ऐसा कहा जाता है कि यहां संपन्न और सामान्य लोगों के बीच गहरी असमानता है. जहां एक तरफ संपन्न घरों के लोग हेलीकॉप्टर का सुख भोगते हैं तो वहीं सामान्य लोगों के लिए पैदल यात्रा, पालकी और खच्चर का ही विकल्प बचता है. वैसे इस रास्ते में हल्की बारिश से भी रास्ता खराब हो जाता है और लोगों को कठनाइयों का सामना करना पड़ता है. यही नहीं केदारनाथ में रात्रि विश्राम के इंतजाम भी न के बराबर हैं जिसके कारण लोगों को भारी दिक्कत का सामना करना पड़ता है.
दिल्ली केे रहने वाले प्रदीप गुप्ता बताते हैं कि ऊपर केदारनाथ में रुकने के लिए होटल तो हैं पर इनकी बुकिंग पहले (प्री-बुकिंग) करनी होती है और यह काफी महंगा होता है. एक दिन का करीब आठ हजार रुपये.
वहीं पटना के रहने वाले छात्र रोहित सिंह राजपूत बताते हैं केदारनाथ का बेस कैंप सोनप्रयाग है जहां होटल है. सोनप्रयाग में सरकार की मेडिकल कैंप जैसी सुविधा है. इसके साथ ही जैसे कोई गुम गया तो उसे खोजने के लिए भी सुविधा है. वहीं युवराज राही बताते हैं कि केदारनाथ है ही ऐसे स्थान पर कि वहां तीन ग्लेशियर है जिसके कारण बर्फ टूट कर पिघलते हैं चाहे कितना भी कुछ कर लें रास्ता खराब हो जाता है.
साथ ही युवराज ने बताया कि जो चैरिटी (संगठन ) यहां पर मौजूद है वह अपना काम अच्छे से नहीं करती. उन्होंने विस्तार में बताते हुए कहा कि जैसे वैष्णो देवी की बात करें तो वहां सारी चीजें व्यवस्थित ढ़ंग से है. फिर चाहे वो ट्रेकिंग के रास्ते में लाइट का प्रबंध हो या फिर पीने के पानी का. साथ ही बताया कि वैष्णों देवी में पैदल चलने वाले लोगों का रास्ता अलग है जो केदारनाथ में नहीं है. हालांकि, उन्होंने खुद ही कहा कि काफी ऊंचाई के कारण लाइट का प्रबंध करना मुश्किल है.
युवराज आगे कहते हैं कि केदारनाथ में चेकपोस्ट पर ब्रिफिंग अच्छे से नहीं की जाती है. जब हमने उनसे पूछा कि इससे आपका क्या मतलब है तो उन्होंने बताया कि ऊपर जाने वाले लोगों को सही से बताया नहीं जाता कि उन्हें ऊपर किन हालातों का सामना करना पड़ सकता है.

मनुष्य के साथ-साथ पशुओं को भी भारी दिक्कत का सामना करना पड़ता है. पिछले साल का वे वीडियोज और फोटोज तो आप लोगों को याद ही होंगे जिसमें केदारनाथ से खच्चरों की मरने की खबर सामने आ रही थी. एक खबर के मुताबिक, पिछले साल केदारनाथ की यात्रा के दौरान करीब 131 घोड़े-खच्चरों की मौत हो गई थी. इन खच्चरों की जान जाने की मुख्य वजह थी इन पर जरूरत सेे अधिक बोझ डाल देना.
रोहित सिंह राजपूत कहते हैं कि कुछ साल पहले तक इतने लोग नहीं आते थे. लेकिन अब लोगों में घूमने का क्रेज है तो बड़े-बूढ़ों के साथ युवा पीढ़ी भी धार्मिक स्थल की यात्रा करते हैं. हालांकि, यह एक तरह से अच्छा है कि वह अपनी संस्कृति को समझ रहे हैं और उससे जुड़े रहने की कोशिश कर रहे हैं. लेकिन भीड़ बढ़ने के कारण खच्चरों पर बोझ बढ गया है. रोहित ने आगे कहा कि पहले दिन में एक दो बार ही घोड़े-खच्चर ऊपर जाते थे और फिर दूसरे दिन लेकिन अब क्या है न, इतने लोग जाने लगे हैं कि दिन में एक 2 बार आना जाना हो जाता है. इससे उन पर बोझ बढ़ता है.
वहीं हमने उतराखंड के पुलिस विभाग के अनिल राणा से बात की. अनिल राणा सिपाही के पोस्ट पर हैं. जब हमने उनसे पूछा कि गधे-खच्चरों की लगातार जान जा रही है इसके लिए कौन जिम्मेवार है तो उन्होंने कहा यह तो प्रकृति केे हाथ मेें है. इसमें कोई क्या ही कर सकता है. साथ ही रास्ते में लाइट या अन्य सुविधाओं को लेकर उन्होंनेे कहा कि सरकार लगातार अपने तरफ से प्रत्यन कर रही है और हर तरह की चीज से अपडेट हो रही है.
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