“घन घमंड नभ गरजत घोरा
प्रिया हीन डरपत मन मोरा “
(आकाश में बादल घुमड़- घुमड़ कर घोर गर्जना कर रहें हैं, प्रिया ( सीता) के बिना मेरा मन डर रहा है)
गोस्वामी तुलसीदास (Goswami Tulsidas) कृत रामचरितमानस (Ramcharitmanas) की ये पंक्तियां उस समय की है जब सीताहरण दोनों भाईयों राम और लक्ष्मण को जंगलों में भटकने को विवश कर देता है. बारिश ने तो झरते बूंदों के सम्मोहन से राम के मन को जैसे खोल दिया. सीता से अलग होने की विवशता ने उनकी धड़कनों के तार को कंपित कर दिया. यह मौसम का भी एक रूप था. यह एक मानव मन की व्यथा और पीड़ा थी जो बारिश में उमड़ आई बादलों की तरह.
बारिश के दस्तक देते हीं प्रकृति की छटा बदल जाती है. चारों तरफ़ बारिश की छुअन से सबकुछ धुला- धुला नज़र आता है. कितना कठिन है मौसम के इस मिज़ाज का वर्णन करना, हम सब जानते हैं. श्रावण या सावन का यह रंगरेज़ मौसम जाने कितने रंगों से हमें सराबोर कर प्रफुल्लित कर देता है. यह मौसम झमाझम बूंदों की थिरकन से अगर खुशियां लाती हैं तो वहीं अपने विकराल रूप से शहर-गांव-खेतों-खलिहानों को भी जलप्लावित कर देने की क्षमता रखती है. कहीं ठनक से हुई मौतों के आंकड़े और बाढ़ से अस्त-व्यस्त जिंदगी को उदासी में लपेट लेती हैं.

Sawan: भारतीय संस्कृति और मान्यताएं
पौराणिक मान्यताओं को मानें तो श्रावण/सावन मास में शिव-पार्वती की पूजा-आराधना कई मनोकामनाओं को पूरी करती हैं. भारतीय संस्कृति में संस्कारों की अलग आस्था है. पूजा मन को एकाग्र भी करती है. कहते हैं स्वयं गौरी ने भगवान शिव को पति रूप में पाने के लिए सोमवार का श्रावण महीने में तप किया था और उन्हें शिव का साथ मिला.
शास्त्रों में कहा गया है कि श्रावण का महीना शिव और पार्वती को अत्यंत प्रिय है. इस महीने में शिव को अगर बेलपत्र और जल भी चढ़ाया जाए तो मनोवांछित फल मिलता है, आशीर्वाद की प्राप्ति होती है. विवाहित और अविवाहित स्त्रियां सोलह सोमवार का व्रत भी रखती हैं. जीवन को सुखमय बनाने की अभिलाषा में शिव-पार्वती की पूजा करती हैं. शिव को हरा रंग प्रिय है. स्त्रियां हरे परिधान और चूड़ियों को धारण करती हैं. इस वर्ष 2023 में श्रावण 4 जुलाई से आरम्भ हो 31 अगस्त तक रहेगा. यह श्रावण मास 59 दिनों तक है. लोगों का कहना है कि ऐसा संयोग बहुत सालों बाद लगा है जब सावन की महीने में पूरे 8 सोमवार होंगे.
सावन से जुड़े जलाभिषेक की पौराणिक कथा और कांवड़ यात्रा
शिव को जल चढ़ाने की पौराणिक कथा है. श्रावन में समुद्र मंथन से जब विष निकला तब सृष्टि की रक्षा हेतु शिव ने उसे अपने कंठ में समाहित कर लिया. विषपान से शिव का कंठ नीलवर्ण हो गया. तब देवताओं ने विष के प्रभाव को कम करने के लिए शिव को जल अर्पित किया और तभी से नीलकंठ महादेव को जल चढ़ाने की प्रथा है.
कुछ मान्यताओं के अनुसार भगवान विष्णु के शयन में जाते हीं शिव की तीनों लोकों के देखभाल की जिम्मेदारी बढ़ जाती है. कहते हैं शिव अपने ससुराल राजा दक्ष के नगर कनखल (हरिद्वार) में आते हैं. लोग हरिद्वार, काशी, उज्जैन, नासिक जैसे जगहों पर ज्योतिर्लिंग के दर्शन करने उमड़ आते हैं. वहीं इस मौसम मेें बिहार, झारखंड और उत्तर प्रदेश के लोग देवघर भी आते हैं.
भगवान शिव के भक्त कांवड़ यात्रा भी करते हैं. कांवड़ संस्कृत के कांवांरथी से बना है. यह एक बहंगी होती है जो बांस से बनी होती है. इसे फूलों, घंटी, मालाओं और घुंघरू से सजाकर गंगा जल रख यात्रा की जाती है और जल शिव को चढ़ाया जाता है. कहते हैं रावण पहला कांवरिया था और राम ने भी महादेव को कांवड़ अर्पित किया था.

“हे घिर – घिर आई बादरा
चमके गरजे बरसे मेघा… “
यह ठुमरी अनायास हीं होठों पे उतर आती है. और स्वर्गीय पंडित बिरजू महाराज (Birju Maharaj) के भावों से बारिश का मौसम (Monsoon) ह्रदय में हिलोरें लेने लगता है. मन चकित रह जाता है, और तब सचमुच लगता है कि प्रकृति के संग हमारे जीवन और संस्कृति का अटूट और अनोखा संबंध है और रहेगा भी.
मानव सभ्यताओं में श्रावण के उत्सव की परम्पराएं
यह कहना कि मानव सभ्यताएं नृत्य-गान-संगीत से परिपूर्ण रहीं हैं बिलकुल भी असत्य नहीं हैं. सैंधव सभ्यता से लेकर वैदिक सभ्यता में भी इनके होने का प्रमाण मिलता है. सामवेद में तो यह विशेष रूप से वर्णित है. मौसम के साथ नृत्य-संगीत और उत्सव की परम्परा रही है. गांवों में भी यह परम्परा लुप्त नहीं हुई है और शहरों में इसे बचाने की मुहिम अपने स्तर पर चल भी रही है. तीज नृत्य भी सावन में स्त्रियों द्वारा आज भी की जा रही, भले इसका स्वरूप बदला है. आधुनिक परिवेश में यह आज भी फल-फूल रही है और इसके लिए लोग एकसाथ आ भी रहें.

साथ हीं रतवाई नृत्य वर्षा ऋतु के आगमन पर डफली और मजीरे संग स्त्रियों और पुरूषों द्वारा की जाती है. लोक गीतों में कजरी भी खूब प्रेम से गाई जाती है. सावन के इस विधा की उत्पत्ति मिर्जापुर (Mirzapur) से हुई और सावन के मौसम में यह अर्ध- शास्त्रीय रूप में गाई जाती है. कजरी में जहां प्रेम की पीड़ा है वहीं विरहिणी मन का दुख भी मौजूद है.
Sawan 2023: साहित्य और बरखा के रंग
साहित्य भी बरखा के रंग से अछूता नहीं है. कालिदास ने मेघदूतम् (the cloud of messenger) में प्रेम का जो वर्णन किया है वह अद्भुत है. कला की नज़र से देखा जाए तो कह सकते हैं कि यह केवल प्रेम का विस्तार नहीं है. वहीं आधुनिक साहित्य में कदम रखते हीं मोहन राकेश (Mohan Rakesh) का नाटक ‘आषाढ़ का एक दिन’ आंखों में तैर जाता है. जहां मेघदूतम् के प्रेमियों के बीच आशा उभरती है वहीं मोहन राकेश के नाटक का पात्र भौतिक प्रलोभन में प्रेम को भूल जाता है और दायित्व किनारे हो जाते हैं.

बारिश कितने अवसर सामने रखती है जब हम बूंदों में खुद को भिगोते किसी तीसरी दुनिया में डूब रहें होते हैं. कहने को तो कितना कुछ है पर यह कहना भी जरूरी है जैसा यियान हान (Yian Han) एक चीनी कवि कहते हैं कि होड़ तो बर्फ़ और बारिश की बूंदों में धरती को गले लगाने/ पा लेने की है पर सवाल है कि उड़ती बर्फ़ या बरसती बूंदें , कौन धरती को पाकर एक एहसास से भर उठेंगी.
“Who will be embraced by the earth
Snow or rain or both “…
आखिर पहाड़ों में जिसने भी बारिश की बूंदों और उड़ती रूई सी बर्फ़ में एकसाथ खुद को भिगोया है, वह इस एहसास से भरा है. प्रकृति अपने सौंदर्य से हमें जीवन दे, इसके लिए तो हमें हीं आगे आना होगा. मनुष्य की प्रकृति जीवन की प्रकृति से अलग नहीं है.
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