सपने जब भी सच होतें हैं तो उनके पीछे एक ही नहीं बल्कि देर-सबेर कई ताकतों और सहयोग के हाथ भी शामिल हो जाते हैं. समाज में परिवर्तन के बीज अंकुरित होते हैं तो यह भी सच होता है कि उस मिट्टी से कई दायित्वों की खुश्बू आती है. यहां हम एक ऐसी जिम्मेदारी के रंग से रंगे सपनों के पूरे होने के धूप-छांव की बात करेंगे, जिसे उठाने वाले के लिए सामाजिक कर्तव्य कभी बोझ नहीं रहा और समाज को गढ़ने में जिसने असीम धैर्य का परिचय दिया. हम बात कर रहे हैं कलावती देवी (Kalawati Devi) की. शिक्षक दिवस केवल शिक्षकों के लिए नहीं बल्कि उनलोगों के दायित्व के लिए भी कृतज्ञ रहेगा जिन्होंने शिक्षा के लिए अपना जीवन होम कर दिया.
कलावती देवी के जीवन का मकसद
बिहार की एक महिला (Bihari Women) जिसने यह बखूबी बताया और समझा कि शिक्षा इस देश के सभी लोगों का हक है. परम्परावादी सोच, निरक्षरता, गरीबी की विवशता और अंधविश्वासों के अंधेरे से समाज को निकाल कर एक सफल दिशा देना कितना महत्वपूर्ण है, इसे अगर किसी ने समझा तो वह एक निरक्षर और गरीब विधवा महिला कलावती देवी थीं. मंदिर-मस्जिद से इतर शिक्षा के मंदिर के लिए सपने देखना और इसे पूरा करना ही उनका धर्म हो गया. उनके सपने हृदय में जागृत हो उठें और यही उनके जीने का मकसद हो गया.
जब हुआ समाज के भयावह रूप से सामना
पद्मश्री कलावती देवी (Padm Shri Kalawati Devi) का जन्म बिहार के अररिया जिले के रानीगंज के धर्रापट्टी (अब कलावती नगर) मोहल्ले में 1922 ई० में एक निर्धन किसान परिवार में हुआ. कलावती के पिता नकछेदी मंडल और मां रामप्यारी देवी थीं. गरीबी ने कलावती को शिक्षा से वंचित रखा भले वो इसके लिए कलपती रहीं और उनके मन के किसी कोने में एक हूक उठती रही. कलावती देवी पांच संतानों में दूसरी संतान थीं और गांव के हीं युवक पंचलाल चौधरी से ब्याही गईं थीं. दाम्पत्य जीवन का सुख उनके हिस्से में कम हीं लिखा था विधाता ने और पति रोगग्रस्त हो, दो बेटियों के जन्म के बाद कलावती देवी के भरोसे उन्हें छोड़ दुनिया से विदा हो गए.समाज का भयावह रूप अब कलावती के सामने खड़ा हो उठा, जब उन्होंने घर की देहरी से बाहर कदम रखा. स्त्रियों की उपेक्षा और कुरीतियों से भरा नारकीय जीवन, यह सब मानों रीढ़ को तोड़ने वाला हीं था.
शिक्षा द्वारा इज़्ज़त और सम्मान से अर्जित रोटी का मूल्य
कलावती देवी के लिए अबतक सबकुछ स्वयमेव उपार्जन नहीं था बल्कि घर के कामों में हीं खुद को खपाए रखना था. पर परिस्थितियों ने ऐसा मोड़ लिया कि अब खुद के लिए हीं नहीं बल्कि दो बेटियों के लिए भी अपने पैरों पर खड़े होने के लिए जरूरी था. किसान परिवार से रहीं कलावती देवी धान से चावल तैयार करतीं और चूड़ा- मूढ़ी बनाकर बाज़ार-हाट में बेचकर जैसे- तैसे घर चलातीं और पेट की आग बुझातीं. जीवन की कई परेशानियां झेलते हुए कलावती देवी के मन में यह बात गहरे पैठी हुई थी कि पैसा पेट तो भर सकता है, पर सम्मान और इज़्ज़त तो शिक्षा हीं दिला सकती है.
अशिक्षा की काल कोठरी से लड़कियों को निकाल समाज में स्थान दिलाना
आखिर शिक्षा एक प्रश्न बनकर कलावती देवी के सम्मुख नग्न खड़ा हो गया. शिक्षा भले ना मिली थी उन्हें, पर जीवन के दो पहिए में एक पहिया का महत्व ,वह जानती थीं. कलावती अब जान चुकीं थीं कि इज्ज़त केवल खुद के लिए नहीं बल्कि हर स्त्री के लिए जरूरी है. अशिक्षा की काल-कोठरी से विशेषकर लड़कियों को निकाल समाज में उनकी भूमिका तय करने का समय आ गया था.
कलावती देवी का जीवन अब केवल उनका नहीं रह गया था, बल्कि समाज के प्रति उनका दायित्व बन चुका था. उनके सपने उनकी आंखों में चमकते रहें और एक अथक प्रयास से मानों मिट्टी में जड़ें पाकर हरे- भरे कोंपल से दरख़्त बन लहलहा उठा. उनकी उम्मीदें हवा- पानी पाते हीं पनप उठीं.
गांव में विधालयों की स्थापना हीं लक्ष्य रहा
अब कलावती देवी अपने सपनों के साथ सांसें लेने लगीं. लड़कियों के लिए शिक्षा हासिल होने के एक फैसले ने उनका जीवन बदल दिया. धीरे-धीरे स्कूल बनाने का सपना पूरा करने के लिए, वह पैसे बचाने लगीं. इस राह में कई मोड़ आते गए और 1968 ई० का वह सुनहरा दिन आया, जब कलावती देवी ने रानीगंज जैसे ग्रामांचल में एक बालिका मध्य विधालय बनवाया. अब कलावती देवी पूरे विश्वास और बुलंद इरादों से लबरेज़ हो आस- पास और गांव- गांव जाकर लोगों को शिक्षा के लिए जागरूक करने लगीं. बेटियों के पढ़ाई की जरूरत लोगों को समझाती रहीं. फिर उच्च विद्यालय भी बना, जहां मैट्रिक तक की पढ़ाई होने लगी. अब कलावती देवी एक सशक्त महिला हो गईं थीं और लोग उनकी बातों पर ध्यान देने लगें. आज रानीगंज में कॉलेज भी बन गया है, जो पढ़ाई की सभी सुविधाओं से लैस है. सचमुच उनकी मेहनत भी रंग लाई, जो उन लड़कियों के हाथों के पीले किए जाने के रंग से भी बहुत खूबसूरत थें.
अंधविश्वासों को दरकिनार करने का एक वाकया
शिक्षा सबों को उपलब्ध हो सके, इसके लिए कलावती देवी ने लड़कियों के लिए, हॉस्टल की जरूरत को भी समझा. उन्होंने एक बगीचा खरीदना चाहा पर उसके मालिक ने कलावती देवी को वहां हॉस्टल न बनाने की बात कहते हुए बताया कि यहां भूत-प्रेत रहते हैं. पर वह एक निर्भिक महिला थीं और रात में बगीचे में हीं सोईं और सारे अंधविश्वासों को दरकिनार कर दिया. आखिर कलावती देवी ने हॉस्टल की नींव डाली और वहाँ शिक्षा पाकर लड़कियां अपने पैरों पर खड़ी हो रहीं हैं.
3 अप्रैल 1976 ई०, जब पद्मश्री से सम्मानित हुईं कलावती देवी
कलावती देवी (Kalawati Devi) शिक्षा के लिए अर्जियां हीं नहीं बल्कि अलख जगाती रहीं और अपने समाज के प्रति निष्ठा से समर्पित रहीं. 3 अप्रैल, 1976 ई० को कलावती देवी को राष्ट्रपति फखरूद्दीन अली अहमद ने अपने हाथों से पद्मश्री प्रदान कर प्रशंसित किया. तत्कालीन प्रधानमंत्री श्रीमती इंदिरा गांधी (PM Indira Gandhi) ने भी उनसे सप्रेम भेंट की और उनके हौसले को बढ़ाया. 1978 ई० में कलावती देवी मदर टेरेसा से भी मिलीं.
शिक्षा की ताकत से देश की पहचान कायम करतीं पद्मश्री कलावती देवी
कितने हीं सपनों की ताकत बनीं कलावती देवी 54 वर्ष की उम्र में साक्षर हुईं और शिक्षा के आगाज़ के लिए आवाज़ बनीं. भले समाज में अग्निपरीक्षा से उन्हें गुजरना पड़ा किंतु कलावती देवी अपने फैसले पर चट्टान की तरह अडिग रहीं. 23 नवम्बर, 1988 ई० को वह इस संसार से विदा हो गईं. बिहार के एक गांव में विशेषकर स्त्री शिक्षा की नींव डालने वाला यह चेहरा भीड़ में भी अपनी अविस्मरणीय पहचान रखेगा. बिहार की मिट्टी उनके कार्यों के लिए सदैव कर्जदार रहेगी. जब-जब स्त्रियों के शिक्षा और स्वाधीनता की बात होगी, देश उन्हें याद रखेगा और सिर माथे पर अलंकृत करेगा. सचमुच, यह कहने में कोई गुरेज़ नहीं है कि असीम धैर्य की पुतली पद्म श्री कलावती देवी समाज के आंखों की पुतली बन गईं.
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