रूनकी झुनकी बेटी मांगीला,
पढ़ल पंडितवा दामाद
छठी मईया दर्शन दींही ना आपन !
और भी मसलन…
मोरा भैया जायेला महंगा “मुंगेर”
लेले अहियो हो भैया गेहूं के मोटरिया!
जब हम इन गीतों में डूबते हैं ,तो आँखों के कोर भीग हीं जाते हैं…
अथर्वेद के अनुसार, छठ देवी अर्थात उषा देवी भगवान भास्कर/सूर्य की मानस बहन हैं. उन्हें षष्ठी देवी भी कहते हैं. उनकी पूजा करने से संतान की प्रप्ति होती है.संतान बेटा भी और बेटी भी चाहे क्यों ना हो !
पुराणों में राजा प्रियंवदा की पत्नी द्वारा संतान के लिए छठ करने की परम्परा का उल्लेख है, तो रामायण में लंका विजित करने के बाद मां सीता और राम जी का भी छठ करने की बात है और उसी तरह पांडवों के राजपाट हारने के बाद याज्ञसेनी अर्थात द्रौपदी के छठ करने का भी उल्लेख है.
छठ एक सामाजिक समरसता के लिए किया जाने वाला भी लोकपर्व है. आज के दौड़ भाग वाली जिंदगी और भेदभाव से बोझिल जिंदगी में स्थायित्व का पर्व है जो हमारी माँ और बहन-बेटियों द्वारा आस्था पे पर्वत समान अडिग रहकर सबके लिए शुभकामनाएं की इच्छा रखने का पर्व है.
छठ की अभूतपूर्व तैयारी और उसकी मान्यताओं को स्त्री -पुरुष भी समान रूप से प्रेम और श्रद्धा से निभाते हैं. पहले दिन नहाए-खाए और उपवास के बाद दूसरे दिन खरना की गुड़ से बनी खीर और पूरी तथा केले, मखाने और अन्य फलों का प्रसाद भी बेशक अमृत तुल्य लगता है.
तीसरे दिन उपवास के बाद शाम में क्षितिज पर विलीन होते लालिमा बिखेरते सूर्य की आराधना करते स्त्री -पुरुष सबके लिए मंगलकामनाएं करते हैं, तो प्रकृति की पूजा समरूप होती है.
हम लाख आविष्कार कर लें, पर प्रकृति की भेंट जो हमें मिली हैं उनका संरक्षण महत्वपूर्ण है. प्राकृतिक रूप से बने बांस की ओड़ी या डलिया कहें या सूप और दिए, सभी जरूरतों को विभिन्न समुदायों और समाज से लिया जाता है.
सुबह पौ फटने से पहले ही दोनों दिन घर के अन्य सदस्य भी जो परवैतिन ना भी हों, नहा-धोकर प्रसाद बनाते हैं.ओड़ी में फलों, कुछ सब्जियों, ठेकुआ, चावल के मिठास भरे कसार या कचवनिया और कपड़े मसलन तौलिया आदि सजा कर कपड़े से बांधा जाता है और भाई, दामाद और पिता- चाचा, मामा आदि लोग इसे अपने सिर पर रखकर नदी किनारे घाट या पोखर या छत पर बने हौज तक ले जाते हैं. कितना अद्भुत होता है ये नजारा और गीत-संगीत से सराबोर माहौल भी!
सुबह के उदयीमान सूर्य की हल्की – हल्की बिखरती किरणों को प्रणाम कर स्वयं और सभी को आलोकित कर मन के अंधेरे को मिटाने का आह्वान किया जाता है. फिर घाट पर या जहां भी पूजा संपन्न होती है परवैतिनें बच्चों को आशीष और बड़ो को प्रणाम कर पारण करती हैं.
बचपन की कुछ सुंदर यादें हैं जो सबको बताना चाहूंगी जो मुझे अचरज और कौतूहल से भरी लगता थीं . घाट पर सुबह की अर्घ्य के बाद जो विधार्थियों और कुछ लोग और भी, खासकर वे जो साफ-सफाई का भी जिम्मेदारी उठाने के कारण घर नहीं जाते थे मसलन इंजिनियरिंग और मेडिकल कॉलेज और अन्य कॉलेजों के विधार्थी भी चादर बिछाकर बिना मांगे प्रसाद पा खुश हो लेते थे और आज भी हैं. बहुत सुन्दर प्रतीत होता था वो क्षण. पूजा करने वाली स्त्रियों का आशीष उन्हें भी मिलता था और पुण्य प्रसाद भी.
छठी माई और सूर्य देव तो प्रतिकात्मक हो सकते हैं पर मन के कोने में भी प्रेम और अहंकार से परे बातें भी हमें हर वर्ष सिखाते हैं और हर पीढ़ी को समृद्ध भी करते रहेगें. सच कहूं तो समाज में जीवन की प्रेम से सिंचित धारा अविरल बहती रहे तो सदियों पुरानी परंम्परा का हमें आलिंगन करना ही चाहिए.